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आइये जानते हैं अमरूद की खेती के बारे में पूरी जानकारी

अमरूद की खेती या बागवानी पूरे देश में की जाती है| अमरूद भारत का एक लोकप्रिय फल है| अमरुद की खेती का क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से देश में उगाये जाने वाले फलों में अमरूद का चौथा स्थान है| यह विटामिन-सी का मुख्य स्त्रोत है। यह असिंचित एंव सिंचित क्षेत्रों में सभी प्रकार की ज़मीन में उगाया जा सकता है|



अमरूद की खेती के लिए जलवायु

अमरूद की खेती उष्ण तथा उपोष्ण जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है, परन्तु अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, अमरूद की खेती के लिये उपयुक्त नहीं होते हैं| अमरूद की खेती के लिये 15 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूल होता है| यह सूखे को भी भली-भाँति सहन कर लेता है| तापमान के अधिक उतार चढ़ाव, गर्म हवा, कम वर्षा, जलक्रान्ति का फलोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव कम पड़ता है|
अमरूद की खेती लगभग प्रत्येक प्रकार की मृदा में की जा सकती है, परन्तु अच्छे उत्पादन के लिये उपजाऊ बलुई दोमट भूमि अच्छी होती है| इसके उत्पादन हेतु 6 से 7.5 पी.एच. मान की मृदा उपयुक्त होती है, किन्तु 7.5 से अधिक पी.एच. मान की मृदा में उकठा रोग के प्रकोप की संभावना होती है|

खेत की तैयारी

अमरूद की खेती के लिए पहली जुताई गहराई से करनी चाहिए| इसके साथ साथ दो जुताई देशी हल या अन्य स्रोत से कर के खेती को समतल और खरपतवार मुक्त कर लेना चाहिए| इसके बाद इसके पौधे की रोपाई हेतु पहले 60 सेंटीमीटर चौड़ाई, 60 सेंटीमीटर लम्बाई, 60 सेंटीमीटर गहराई के गड्ढे तैयार करके 20 से 25 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद 250 ग्राम सुपर फास्फेट तथा 40 से 50 ग्राम फालीडाल धुल ऊपरी मिटटी में मिलाकर गड्ढो को भर कर सिचाई कर देते है| इसके पश्चात पौधे की पिंडी के अनुसार गड्ढ़े को खोदकर उसके बीचो बीच पौधा लगाकर चारो तरफ से अच्छी तरह दबाकर फिर हल्की सिचाई कर देते है|
अमरूद का प्रसार व्यवसायिक स्तर पर वानस्पतिक विधियों द्वारा किया जा सकता है| अतः अमरूद का बाग लगाने के लिये वानस्पतिक विधियों द्वारा तैयार पौधों का ही उपयोग करें| इसके व्यावसायिक प्रसार के लिये कलिकायन एवं उपरोपण विधि का उपयोग किया जाना उत्तम पाया गया है| प्रसारण तथा प्रवर्धन की अधिक जानकारी के लिए यहां पढ़ें- पौधों का प्रवर्धन कैसे करें, 

जानिए बागवानी के लिए प्रवर्धन की विधियां

सघन बागवानी पौधारोपण




अमरूद की सघन बागवानी के बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त हुये हैं| सघन रोपण में प्रति हैक्टेयर 500 से 5000 पौधे तक लगाये जा सकते हैं, तथा समय-समय पर कटाई-छँटाई करके एवं वृद्धि नियंत्रकों का प्रयोग करके पौधों का आकार छोटा रखा जाता है| इस तरह की बागवानी से 30 से 50 टन प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन लिया जा सकता है| जबकि पारम्परिक विधि से लगाये गये बगीचों का उत्पादन 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर होता है| इसके लिए यह विधियां सबसे प्रभावी रही है-
1. 3 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, और 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 2200 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
2. 3 मीटर मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 3 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 1100 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|
3. 6 मीटर लाइन से लाइन की दुरी, 1.5 मीटर पौधे से पौधे की दुरी, कुल 550 के करीब पौधे प्रति हैक्टेयर|

खाद एवं उर्वरक

अमरूद की अच्छी उपज और वृद्धि के लिये उपयुक्त मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक है| अमरूद की खेती में मुख्य एवं सूक्ष्म तत्वों की आवश्यकता होती है| जिनमें नत्रजन, स्फुर और पोटाश युक्त तत्वों की काफी मात्रा में आवश्यकता होती है| इसी प्रकार जस्ते और बोरॉन तत्वों की कम मात्रा में अवश्यकता पड़ती है| अमरूद के कुछ बागों या पौधों में जस्ते की कमी देखी गई है|





इसकी कमी से पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है, बहुत सी छोटी व नुकीली पत्तियाँ गुच्छों के रूप में निकलती हैं, और पत्तियों के नसों का रंग हल्का पीला हो जाता है| बहुत अधिक कमी होने पर पेड़ों की शाखायें ऊपर की तरफ से सूखना प्रारंभ कर देती हैं| पौधों में फूल कम आते हैं, एवं जो फल लगते हैं, फटकर सूख जाते हैं| बोरॉन की कमी से फलों के अन्दर, बीजों के पास धब्बे बन जाते है| जो गूदे की तरफ बढ़ कर गूदे को भूरे या काले रंग का कर देते है, जिससे प्रभावित भाग कड़ा हो जाता है, तथा फलों का आकार छोटा हो जाता है| अतः पौधों की उत्तम वृद्धि एवं उत्पादन के लिये खाद एवं उर्वरकों की निम्नलिखित मात्रा का प्रयोग करें-
पौधों की आयु वर्ष में गोबर खाद किलोग्राम में पोटाश ग्राम में स्फुर ग्राम में नत्रजन ग्राम में
पहला 15 50 35 50
दूसरा 25 100 70 100
तीसरा 35 150 105 150
चोथा 50 200 140 200
पाचवां 60 250 175 250
छटा और आगे के प्रति वर्ष के लिए 70 300 200 300
उपरोक्त खाद और उर्वरक के साथ साथ 0.5 प्रतिशत ज़िंक सल्फेट, 0.4 प्रतिशत बोरिक ऐसिड और 0.4 प्रतिशत कॉपर सल्फेट का छिड़काव फूल आने के पहले करने से पौधों की वृद्धि एवं उत्पादन बढ़ाने में सहायता मिलेगी|
अमरूद में पोषक तत्व खींचने वाली जड़ें तने के आस-पास और 30 से 40 सेंटीमीटर की गहराई में होती है| इसलिये खाद देते समय इस बात का ध्यान रखें कि खाद, पेड़ के फैलाव में 20 से 25 सेंटीमीटर की गहराई में थाला बनाकर दें| गोबर की खाद, स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा जून से जुलाई में तथा शेष नत्रजन की मात्रा सितम्बर से अक्टूबर में वर्षा समाप्त होने से पहले दें| इसके आलावा उपयुक्त मात्र में जैविक खाद का भी उपयोग कर सकते है|

सिंचाई व्यवस्था

अमरूद की खेती में एक से दो वर्ष पुराने पौधों की सिंचाई, भारी भूमि में 10 से 15 दिन के अन्तर से तथा हल्की भूमि में 7 दिन के अन्तर से करें| गर्मियों में सिंचाई का अंतराल कम करें या आवश्यकतानुसार करें| दो वर्ष से अधिक उम्र के पौधों को भारी भूमि में 15 से 20 दिन तथा हल्की भूमि में 10 दिन के अन्तर से थाला बनाकर पानी दें| जिससे पानी की बचत होगी, पुराने एवं फलदार पेड़ों की सिंचाई, वर्षा के बाद 20 से 25 दिन के अंतर से, जब तक फसल बढ़ती है, करते रहें तथा फसल तोड़ने के बाद सिंचाई बंद कर दें|
असिंचित क्षेत्रों में वर्षा के जल को अमरूद के पौधो के चारों ओर थाला बना कर सिंचित करें, और सितम्बर माह में घास एवं पत्तियाँ बिछा कर नमी को संरक्षित करें| इससे उत्पादन में वृद्धि होकर उत्तम गुण वाले फल प्राप्त होंगे|

कटाई-छँटाई

अमरूद की खेती के पहले वर्ष में कटाई-छँटाई का कार्य कर पौधों को आकार दें| पौधों को साधने के लिये सबसे पहले उन्हें जमीन से 70 से 90 सेंटीमीटर तक सीधा बढ़ने दें| फिर इस ऊँचाई के बाद 15 से 20 सेंटीमीटर के अंतर पर 3 से 4 शाखायें चुन लें| इसके पश्चात् मुख्य तने के शीर्ष एवं किनारे की शाखाओं की कटाई-छँटाई करें, जिससे पेड़ का आकार नियंत्रित रहे| बड़े पेड़ों से सूखी तथा रोगग्रस्त टहनियों को अलग करें| तने के आस-पास भूमि की सतह से निकलने वाले कल्लों को निकालते रहें| पुराने पौधे जिनकी उत्पादन क्षमता घट गई हो उनकी मुख्य एवं द्वितीयक शाखाओं की कटाई करें, जिससे नई शाखायें आयेंगी तथा पुराने पौधों की उपज क्षमता बढे़गी|

फलन उपचार

अमरूद की खेती से आमतौर पर वर्ष में एक मुख्य शीतकालीन फसल लेने का सुझाव दिया जाता है| जबकि अमरूद में वर्ष में तीन बार फूल आते हैं| अतः गर्मी एवं वर्षा ऋतु में आने वाले फूलों को सिंचाई रोककर रोकना उचित होता है| वर्षाकालीन फसल में कीट एवं रोगों का प्रकोप अधिक होता है| जबकि सर्दी की फसल के फल अच्छे गुण वाले होते हैं, तथा फलों में विटामिन-सी की मात्रा सबसे अधिक पाई जाती है| वर्षाकालीन फसल को बाज़ार में अच्छा मूल्य नहीं मिल पाता है| अतः ठंड की फसल लेने की सिफारिश की जाती है| वर्षाकालीन फसल को रोक कर ठंड की फसल लेने के लिये निम्नलिखित उपाय कर सकते है, जैसे की-
अप्रैल से जून तक पौधों को पानी नहीं दें, पानी रोकने की यह क्रिया 5 वर्ष से अधिक उम्र के पौधों में ही करें| जिससे बसंत ऋतु में फूल एवं पत्तियाँ गिर जाती हैं, तथा वर्षान्त में फूल काफी संख्या में आते हैं| इस कार्य हेतु स्थानीय और स्वय के अनुभव अनुसार पानी रोकने की समय सीमा तय करे|
यूरिया का 10 प्रतिशत घोल का छिड़काव एक बार या 100 से 200 पी.पी.एम नेफ्थलीन ऐसेटिक एसिड के घोल का छिड़काव 20 दिन के अंतराल से दो बार करें| जिससे अनचाहे फल और पत्तियाँ गिराये जा सकते हैं|

रोग रोकथाम

अमरूद की खेती में उकठा रोग, एन्थ्रेक्नोज़, पौध अंगमारी, तना कैन्कर, फल चित्ती, श्याम वर्ण ,फल गलन या टहनी मार लगते है| नियंत्रण के लिए उकठा रोग हेतु खेत साफ सुथरा रखना चाहिए, अधिक पानी न दे, ऐसे पेड़ो को उखाड़ कर अलग कर देना चाहिए, इस रोग से ग्रसित पौधों के गड्ढों की मिट्टी को एक ग्राम बेनलेट या कार्बेन्डाज़िम प्रति लीटर पानी में घोल कर 20 लीटर प्रति गड्ढा उपचारित करें| भूमि में चूना, जिप्सम तथा कार्बनिक खाद मिलाकर रोग के प्रकोप को कम करें| अन्य रोगो हेतु रोग ग्रस्त डालियों को काटकर 0.3% का कापर आक्सीक्लोराईड के घोल का छिडकाव दो या तीन 15 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए|

फलों की तुडाई

अमरूद के फलों की तुडाई कैची की सहायता से थोड़ी सी डंठल एवं एक दो पते सहित काटकर करनी चाहिए, खाने में आधिकतर अधपके फल पसंद किये जाते है| तुडाई दो दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए|

उपज

पौधे लगाने के 2 से 3 वर्ष बाद फल मिलना प्रारम्भ हो जाते है| पेड़ो की देख-रेख अच्छी तरह से की जाय तो पेड़ कई वर्ष तक उतपादन की अवस्था में बने रहते है| उपज की मात्रा किस्म विशेष जलवायु एवं पेड़ की आयु अनुसार प्राप्त होती है, फिर भी 5 से 7 वर्ष की आयु के एक पेड़ से लगभग 350 से 600 तक अच्छे फल प्राप्त होते है|

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